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रामस्य अयनं (चरितं) रामायणम् । रामायणमादिकाव्यं सर्वेषां काव्यानां जीवातुभूतं च भवति । रामायणं महाभारतवत् कश्चिदितिहासग्रन्थो भवति । संस्कृतसाहित्ये रामायणवत् प्रसिध्दः लोकप्रियश्च अन्यः ग्रन्थः नास्तीति वक्तुं शक्यते । नीतिदृष्ट्या काव्यात्मकदृष्ट्या लोकोपकारकदृष्ट्या च रामायणस्य महत्त्वं वर्धते । पितृपुत्रधर्मस्य पतिपत्नीधर्मस्य भ्रातृधर्मस्य तथा अन्यकौटुम्बिकधर्मस्य च आदर्शभूतो अयं ग्रन्थः ॥ आदिकाव्यस्य रामायणस्य कर्ता श्रीमद्वाल्मीकिः । श्रीवाल्मीकिः पूर्वं कश्चित् तस्करः(निषादः)आसीत् रत्नाकरः इति नाम्ना । सप्तर्षीणां दर्शनानन्तरं राममन्त्रजपपूर्वकतपसा रत्नाकरः वाल्मीकिः संजातः । रामायणे न केवलं युद्धमात्रं प्रत्युत सकलालङ्काराणां प्रकृतिसौन्दर्यस्य धर्मस्य च यत्र तत्र वर्णनं दृश्यते । सरलसंस्कृतभाषापठनार्थम् अत्यन्तोपयोगि साधनं च भवत्येतत् ॥
रामायणमादिकाव्यम् इति प्रसिद्धम्। इतिहासग्रन्थः इत्यपि भाव्यते एतत्। एतस्य ग्रन्थस्य रचयिता वाल्मीकिः। किरातकुले उत्पन्नः सः नारदस्य उपदेशात् तपः अकरोत्। तस्य शरीरम् आवृत्य वल्मीकः उत्पन्नः। ततः स बहिः आगतः इत्यतः तस्य नाम 'वाल्मीकिः' इति काचित् कथा श्रूयते।
तमसानदीं स्नानार्थं गच्छन् वाल्मीकिः व्याधेन मारितं क्रौञ्चं पश्यति। तदा शोकाकुलः सः - 'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः' इति व्याघ्रं शपति। ततः नारदमुखात् रामस्य कथां श्रुत्वा सः रामायणं रचयति। सीतारामयोः वियोगः रामायणस्य मुख्यं कथावस्तु।
महाभारते रामायणस्य कथा वर्णिता दृश्यते। पाणिनेः अष्टाध्याय्याम् अपि कैकेयीकौसल्यादयः शब्दाः दृश्यन्ते। अतः रामायणं महाभारतात् पाणिनेः च पूर्वम् आसीत् इति स्पष्टम्। रामायणं कदा आसीत् इति विषये मतभेदाः बहवः सन्ति। तथापि एतावत्तु वक्तुं शक्यते यत् वाल्मीकिः रामायणं क्रि·पू·पञ्चसहस्रवर्षेभ्यः पूर्वं रचितवान् स्यात् इति।
रामायणे २४००० श्लोकाः सन्ति। रामायणस्य प्रतिसहस्रतमस्य श्लोकस्य आदौ गायत्रीमन्त्रस्य एकैकम् अक्षरं प्राप्यते। पाठभेदादयः न भवेयुः इति उद्देशेन एवं कृतं स्यात् कविना। रामायणं सर्वासु भारतीयभाषासु बह्वीषु विदेशीयभाषासु च उपलभ्यते। एतस्मात् रामायणस्य जनप्रियता ज्ञाता भवति।
वाल्मीकेः शैली ललिता सरला सुन्दरी च। श्रीरामस्य धर्मनिष्ठा, सीतायाः सौशील्यं, भरतस्य भ्रातृवात्सल्यं, लक्ष्मणस्य कर्तव्यनिष्ठा, आञ्जनेयस्य कार्यदक्षता, सुग्रीवस्य सौहार्दभावः इत्यादयः अंशाः अतिरमणीयतया चित्रिताः तेन। संस्कृतसाहित्यनिर्माणे वाल्मिकिः शकपुरुषः इत्यत्र न अतिशयोक्तिः।
राम चरित मानस प्रणेता गोस्वामी तुलसीदास: (Goswami Tulsidas)(१५५४-१६८०) भारतीय साहित्यस्य सर्वाधिकः लोकप्रियः कवि: अस्ति। तस्मिन काव्येषु द्वादश ग्रन्थाः अद्यापि उपलब्धाः सन्ति। तेषु ग्रन्थेषु रामचरितमानस: न केवलं महाकाव्यं अपितु विश्वस्य महानतम काव्यमस्ति। अस्य काव्यस्य विषये मधुसूदन सरस्वती महाभागेन अलिखत-- आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः। कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥ अस्मिन ग्रन्थे चत्वारि वेदानि षट शास्त्राणि रसा: विद्यते। अस्य महाकाव्यस्य अनेकाभिः भाषाभिः अनुवादा: अस्य लोकप्रियतां प्रदर्शयतु। एतत् महाकाव्यम् आन्तर्जालेऽपि उपलब्धमस्ति।
श्रीरामचन्द्रः भगवतः नारायणस्य दशसु अवतारेषु सप्तमः । सूर्यवंशसमुत्पन्नोऽयं दशरथस्य पुत्रः । भगवान् नारायणः त्रेतायुगे श्रीरामचन्द्ररूपेण अवतारं गृहीतवान् । रामायणकथानायकः श्रीरामः । सः अवतारपुरुषः इति रामायणे चित्रितः श्रीरामः अयोध्याधिपस्य दशरथस्य अत्यन्तं प्रीतिपात्रः ज्येष्ठ्पुत्रः । अयोध्याप्रजाभ्यः अपि अत्यन्तं प्रीतिपात्रः श्रीरामः । एषः सद्गुणानां साकाररुपः (मूर्तरुपः)आसीत्। दशरथस्य तिसृषु पत्नीषु अन्यतमा कैकेयी दशरथेन दत्तेन वरद्वारा रामं वनं प्रेषयति । रामोऽपि राज्याभिषेकं विहाय वनगमनाय सिद्धः भवति । यदा वनवासे भवति तदैव राक्षसं रावणं मारयति ।
श्री राम चरित मानस अवधी भाषा में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा १६वीं सदी में रचित एक महाकाव्य है। श्री रामचरित मानस भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है। उत्तर भारत में रामायण के रूप में कई लोगों द्वारा प्रतिदिन पढ़ा जाता है। श्री रामचरित मानस में इस ग्रन्थ के नायक को एक महाशक्ति के रूप में दर्शाया गया है जबकि महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में श्री राम को एक मानव के रूप में दिखाया गया है। तुलसी के प्रभु राम सर्वशक्तिमान होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। शरद नवरात्रि में इसके सुन्दर काण्ड का पाठ पूरे नौ दिन किया जाता है।
रामचरितमानस को हिंदी साहित्य की एक महान कृति माना जाता है। रामचरितमानस को सामान्यतः 'तुलसी रामायण' या 'तुलसीकृत रामायण' भी कहा जाता है। त्रेता युग में हुए ऐतिहासिक राम-रावण युद्ध पर आधारित और हिन्दी की ही एक लोकप्रिय भाषा अवधी में रचित रामचरितमानस को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में ४६वाँ स्थान दिया गया।
रामचरित मानस १५वीं शताब्दी के कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखा गया महाकाव्य है। जैसा तुलसीदास ने रामचरित मानस के बालकाण्ड में स्वयं लिखा है कि उन्होंने रामचरित मानस की रचना का आरम्भ अयोध्या में विक्रम संवत १६३१ (१५७४ ईस्वी) को रामनवमी के दिन (मंगलवार) किया था। गीताप्रेस गोरखपुर के श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार के अनुसार रामचरितमानस को लिखने में गोस्वामी तुलसीदास जी को २ वर्ष ७ माह २६ दिन का समय लगा था और उन्होंने इसे संवत् १६३३ (१५७६ ईस्वी) के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम विवाह के दिन पूर्ण किया था। इस महाकाव्य की भाषा अवधी है जो हिंन्दी की ही एक शाखा है।
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने श्री रामचन्द्र के निर्मल एवं विशद चरित्र का वर्णन किया है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत रामायण को रामचरितमानस का आधार माना जाता है। यद्यपि रामायण और रामचरितमानस दोनों में ही राम के चरित्र का वर्णन है परंतु दोनों ही महाकाव्यों के रचने वाले कवियों की वर्णन शैली में उल्लेखनीय अन्तर है। जहाँ वाल्मीकि ने रामायण में राम को केवल एक सांसारिक व्यक्ति के रूप में दर्शाया है वहीं तुलसीदास ने रामचरितमानस में राम को भगवान विष्णु का अवतार माना है।
रामचरितमानस को तुलसीदास ने सात काण्डों में विभक्त किया है। इन सात काण्डों के नाम हैं - बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड और उत्तरकाण्ड। छन्दों की संख्या के अनुसार अयोध्याकाण्ड और सुन्दरकाण्ड क्रमशः सबसे बड़े और छोटे काण्ड हैं। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में हिन्दी के अलंकारों का बहुत सुन्दर प्रयोग किया है विशेषकर अनुप्रास अलंकार का। रामचरितमानस पर प्रत्येक हिंदू की अनन्य आस्था है और इसे हिन्दुओं का पवित्र ग्रन्थ माना जाता है।
तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरित मानस की कुछ चौपाइयों को लेते हैं। बात उस समय की है जब मनु और सतरूपा परमब्रह्म की तपस्या कर रहे थे। कई वर्ष तपस्या करने के बाद शंकरजी ने स्वयं पार्वती से कहा कि मैं, ब्रह्मा और विष्णु कई बार मनु सतरूपा के पास वर देने के लिये आये, जिसका उल्लेख तुलसी दास जी द्वारा रचित रामचरितमानस में इस प्रकार मिलता है- "बिधि हरि हर तप देखि अपारा, मनु समीप आये बहु बारा"। जैसा की उपरोक्त चौपाई से पता चलता है कि ये लोग तो कई बार आये यह कहने कि जो वर तुम माँगना चाहते हो माँग लो; पर मनु सतरूपा को तो पुत्र रूप में स्वयं परमब्रह्म को ही माँगना था फिर ये कैसे उनसे यानी शंकर, ब्रह्मा और विष्णु से वर माँगते? हमारे प्रभु श्रीराम तो सर्वज्ञ हैं। वे भक्त के ह्रदय की अभिलाषा को स्वत: ही जान लेते हैं। जब २३ हजार वर्ष और बीत गये तो प्रभु श्रीराम के द्वारा आकाश वाणी होती है- "प्रभु सर्बग्य दास निज जानी, गति अनन्य तापस नृप रानी। माँगु माँगु बरु भइ नभ बानी, परम गँभीर कृपामृत सानी।।" इस आकाश वाणी को जब मनु सतरूपा सुनते हैं तो उनका ह्रदय प्रफुल्लित हो उठता है। और जब स्वयं परमब्रह्म राम प्रकट होते हैं तो उनकी स्तुति करते हुए मनु और सतरूपा कहते हैं- "सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू, बिधि हरि हर बंदित पद रेनू। सेवत सुलभ सकल सुखदायक, प्रणतपाल सचराचर नायक॥" अर्थात् जिनके चरणों की वन्दना विधि, हरि और हर यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही करते है, तथा जिनके स्वरूप की प्रशंसा सगुण और निर्गुण दोनों करते हैं: उनसे वे क्या वर माँगें? इस बात का उल्लेख करके तुलसी बाबा ने उन लोगों को भी राम की ही आराधना करने की सलाह दी है जो केवल निराकार को ही परमब्रह्म मानते हैं।
श्रुति हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रन्थों का समूह है। श्रुति का शाब्दिक अर्थ है सुना हुआ, यानि ईश्वर की वाणी जो प्राचीन काल में ऋषियों द्वारा सुनी गई थी और शिष्यों के द्वारा सुनकर जगत में फैलाई गई थी। इस दिव्य स्रोत के कारण इन्हें धर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत माना है। इनके अलावे अन्य ग्रंथों को स्मृति माना गया है - जिनका अर्थ है मनुष्यों के स्मरण और बुद्धि से बने ग्रंथ जो वस्तुतः श्रुति के ही मानवीय विवरण और व्याख्या माने जाते हैं। श्रुति और स्मृति में कोई भी विवाद होने पर श्रुति को ही मान्यता मिलती है, स्मृति को नहीं। श्रुति में चार वेद आते हैं : ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। हर वेद के चार भाग होते हैं : संहिता, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद्। इनके अलावा बाकी सभी हिन्दू धर्मग्रन्थ स्मृति के अन्तर्गत आते हैं।
स्मृतियों, धर्मसूत्रों, मीमांसा, ग्रंथों, निबन्धों महापुराणों में जो कुछ भी कहा गया है वह श्रुति की महती मान्यता को स्वीकार करके ही कहा गया है ऐसी धारणा सभी प्राचीन धर्मग्रन्थों में मिलती है। अपने प्रमाण के लिए ये ग्रन्थ श्रुति को ही आदर्श बताते हैं हिन्दू परम्पराओ के अनुसार इस मान्यता का कारण यह है कि ‘श्रुतु’ ब्रह्मा द्वारा निर्मित है यह भावना जन सामान्य में प्रचलित है चूँकि सृष्टि का नियन्ता ब्रह्मा है इसीलिए उसके मुख से निकले हुए वचन पुर्ण प्रमाणिक हैं तथा प्रत्येक नियम के आदि स्रोत हैं। इसकी छाप प्राचीनकाल में इतनी गहरी थी कि वेद शब्द श्रद्धा और आस्था का द्योतक बन गया। इसीलिए पीछे की कुछ शास्त्रों को महत्ता प्रदान करने के लिए उनके रचयिताओं ने उनके नाम के पीछे वेद शब्द जोड़ दिया। सम्भवतः यही कारण है कि धनुष चलाने के शास्त्र को धनुर्वेद तथा चिकित्सा विषयक शास्त्र को आयुर्वेद की संज्ञा दी गई है। महाभारत को भी पंचम वेद इसीलिए कहा गया है कि उसकी महत्ता को अत्यधिक बल दिया जा सके।
उदाहरणार्थ मनु की संहिता को मनुस्मृति माना जाता है। इसके अनुसार समाज, परिवार, व्यापार दण्डादि के जो प्रावधान हैं वह मनु द्वारा विचारित और वेदों की वाणी पर आधारित हैं। लेकिन ये ईश्वर द्वारा कहे गए शब्द (या नियम) नहीं हैं। अतः ये एक स्मृति ग्रंथ है। लेकि ईशावास्योपनिषद एक श्रुति है क्योंकि इसमें ईश्वर की वाणी का उन ऋषियों द्वारा शब्दांतरण है।
वेदों को श्रुति दो वजह से कहा जाता है :
इनको परम्-ब्रह्म परमात्मा ने प्राचीन ऋषियों को उनके अन्तर्मन में सुनाया था जब वे ध्यानमग्न थे। अर्थात श्रुति ईश्वर-रचित हैं।
वेदों को पहले लिखा नहीं जाता था, इनको गुरु अपने शिष्यों को सुनाकर याद करवा देते थे और इसी तरह परम्परा चलती थी।
स्मृति हिन्दू धर्म के उन धर्मग्रन्थों का समूह है जिनकी मान्यता श्रुति से नीची श्रेणी की हैं और जो मानवों द्वारा उत्पन्न थे। इनमें वेद नहीं आते। स्मृति का शाब्दिक अर्थ है - "याद किया हुआ"। यद्यपि स्मृति को वेदों से नीचे का दर्ज़ा हासिल है लेकिन वे (रामायण, महाभारत, गीता, पुराण) अधिकांश हिन्दुओं द्वारा पढ़ी जाती हैं, क्योंकि वेदों को समझना बहुत कठिन है और स्मृतियों में आसान कहानियाँ और नैतिक उपदेश हैं। इसकी सीमा में विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों—गीता, महाभारत, विष्णुसहस्रनाम की भी गणना की जाने लगी। शंकराचार्य ने इन सभी ग्रन्थों को स्मृति ही माना है।
मनु ने श्रुति तथा स्मृति महत्ता को समान माना है। गौतम ऋषि ने भी यही कहा है कि ‘वेदो धर्ममूल तद्धिदां च स्मृतिशीले'। हरदत्त ने गौतम की व्खाख्या करते हुए कहा कि स्मृति से अभिप्राय है मनुस्मृति से। परन्तु उनकी यह व्याख्या उचित नहीं प्रतीत होती क्योंकि स्मृति और शील इन शब्दों का प्रयोग स्रोत के रूप में किया है, किसी विशिष्ट स्मृति ग्रन्थ या शील के लिए नहीं। स्मृति से अभिप्राय है वेदविदों की स्मरण शक्ति में पड़ी उन रूढ़ि और परम्पराओं से जिनका उल्लेख वैदिक साहित्य में नहीं किया गया है तथा शील से अभिप्राय है उन विद्वानों के व्यवहार तथा आचार में उभरते प्रमाणों से। फिर भी आपस्तम्ब ने अपने धर्म-सूत्र के प्रारम्भ में ही कहा है ‘धर्मज्ञसमयः प्रमाणं वेदाश्च’।
स्मृतियों की रचना वेदों की रचना के बाद लगभग ५०० ईसा पूर्व हुआ। छठी शताब्दी ई.पू. के पहले सामाजिक धर्म वेद एवं वैदिक-कालीन व्यवहार तथा परम्पराओं पर आधारित था। आपस्तम्ब धर्म-सूत्र के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि इसके नियम समयाचारिक धर्म के आधार पर आधारित हैं। समयाचारिक धर्म से अभिप्राय है सामाजिक परम्परा से। सब सामाजिक परम्परा का महत्त्व इसलिए था कि धर्मशास्त्रों की रचना लगभग १००० ई.पू. के बाद हुई। पीछे शिष्टों की स्मृति में पड़े हुए परम्परागत व्यवहारों का संकलन स्मृति ग्रन्थों में ऋषियों द्वारा किया गया। इसकी मान्यता समाज में इसीलिए स्वीकार की गई होगी कि जो बातें अब तक लिखित नहीं थीं केवल परम्परा में ही उसका स्वरूप जीवित था, अब लिखित रूप में सामने आईं। अतएव शिष्टों की स्मृतियों से संकलित इन परम्पराओं के पुस्तकीकृत स्वरूप का नाम स्मृति रखा गया। पीछे चलकर स्मृति का क्षेत्र व्यापक हुआ।
स्मृति से इतर
स्मृति की भाषा सरल थी, नियम समयानुसार थे तथा नवीन परिस्थितियों का इनमें ध्यान रखा गया था। अतः ये अधिक जनग्राह्य तथा समाज के अनुकूल बने रहे। फिर भी श्रुति की महत्ता इनकी अपेक्षा अत्यधिक स्वीकार की गई। परन्तु पीछे इनके बीच संधि स्थापित करने के लिए वृहस्पति ने कहा कि श्रुति और स्मृति मनुष्य के दो नेत्र हैं। यदि एक को ही महत्ता दी जाय तो आदमी काना हो जाएगा। अत्रि ने तो यहाँ तक कहा कि यदि कोई वेद में पूर्ण पारंगत हो स्मृति को घृणा की दृष्टि से देखता हो तो इक्कीस बार पशु योनि में उसका जन्म होगा। वृहस्पति और अत्रि के कथन से इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वेद के समान स्मृति की भी महत्ता अब स्वीकार की गई। पीछे चलकर सामाजिक चलन में श्रुति के ऊपर स्मृति की महत्ता को स्वीकार कर लिया गया जैसे दत्तक पुत्र की परम्परा का वेदों में जहाँ विरोध हैं वहीं स्मृतियों में इसकी स्वीकृति दी गई है। इसी प्रकार पञ्चमहायज्ञ श्रुतियों के रचना काल की अपेक्षा स्मृतियों के रचना काल में व्यापक हो गया। वेदों के अनुसार झंझावात में, अतिथियों के आने पर, पूर्णिमा के दिन छात्रों को स्वाध्याय करना चाहिए क्योंकि इन दिनों में सस्वर पाठ करने की मनाही थी। परन्तु स्मृतियों ने इन दिनों स्वाध्याय को भी बन्द कर दिया। शूद्रों के सम्बन्ध में श्रुति का यह स्पष्ट निर्णय है कि वे मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते हैं परन्तु उपनिषदों ने शूद्रों के ऊपर से यह बन्धन हटा दिया एवं उनके मोक्ष प्राप्ति की मान्यता स्वीकार कर ली गई। ये सभी तथ्य सिद्ध करते हैं कि श्रुति की निर्धारित परम्पराओं पर स्मृतियों की विरोधी परम्पराओं को पीछे सामाजिक मान्यता प्राप्त हो गई। स्मृतियों की इस महत्ता का कारण बताते हुए मारीचि ने कहा है कि स्मृतियों के जो वचन निरर्थक या श्रुति विरोधी नहीं हैं वे श्रुति के ही प्रारूप हैं। वेद वचन रहस्मय तथा बिखरे हैं जिन्हें सुविधा में स्मृतियों में स्पष्ट किया गया है। स्मृति वाक्य परम्पराओं पर आधारित हैं अतः इनके लिए वैदिक प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। इनकी वेदगत प्रामाणिकता स्वतः स्वीकार्य है। वैदिक भाषा जनमानस को अधिक दुरूह प्रतीत होने लगी थी, जबकि स्मृतियाँ लौकिक संस्कृत में लिखी गई थीं जिसे समाज सरलता से समझ सकता था तथा वे सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप सिद्धांतप्रतिपादित करती थीं। स्मृति लेखकों को भी वैदिक महर्षियों की तरह समाज ने गरिमा प्रदान की थी। वैदिक और स्मृति काल के बीच व्यवहारों तथा परिस्थितियों के बदलने से एवं विभिन्न आर्थिक कारणों और नवीन विचारों के समागम से स्मृति को श्रुति की अपेक्षा प्राथमिकता मिली। इसका कारण यह भी बताया जा सकता है कि समाजशास्त्रीय मान्यता के पक्ष में था। इन सब कारणों से श्रुति की मान्यता को स्मृतियों की मान्यता के सम्मुख ५०० ईसा पूर्व से महत्त्वहीन समझा जाने लगा।