दिशादर्शन


दीवार पर अंकित संदेश पढ़िए

-- हो.वे. शेषाद्रि

सह सरकार्यवाह, रा.स्व.संघ

हमारे सभी त्योहारों- चाहे वे राष्ट्रीय पर्व हों अथवा ओणम जैसे प्रान्तीय पर्व या फिर स्थानीय और वनवासी वर्ग के पर्व हों- में एक गहरा आध्यात्मिक संदेश निहित रहता है; कि अंतत: अच्छाई और शीलवान व्यक्तियों की दुष्ट शक्तियों पर विजय होती है। परंपरागत रूप में इसे आसुरी शक्तियों पर दैवी शक्तियों की विजय कहा जाता है। दशावतार की प्रत्येक कथा में यही एक नैतिक संदेश कुछ इस प्रकार चित्रवत् वर्णित है कि एक छोटा बालक भी इसे अपनी अद्र्धचेतनावस्था में ग्रहण कर सकता है।

लेकिन! यह "लेकिन' सच में भयानक है, पर यह है! "लेकिन' यह है कि राष्ट्रों के बचे रहने अथवा पतन होने का वास्तविक इतिहास इससे ठीक उलट ही सच्चाई दर्शाता है; कि एक के बाद एक न जाने कितने ही देश अत्यंत बर्बर और अमावनीय जातियों के अनेक हमलों के द्वारा वि·श्व इतिहास के पन्नों से गायब कर दिए गए। वे हमेशा के लिए वि·श्व के मानचित्र से गायब हो चुके हैं।

उदाहरण के लिए, रोम से गए ईसाई कट्टरपंथियों के यूरोप में वर्चस्व स्थापित करने से पहले पूरे यूरोप में अनेक स्थानीय धार्मिक परम्पराएं प्रचलन में थीं। वे आपस में प्रेम से रहते थे, एक-दूसरे के देवी-देवताओं और पूजा-पद्धतियों का आदर करते थे, पर उन सबका सामूहिक नरसंहार कर दिया गया अथवा जीवित जला दिया गया या उन आक्रमणकारी दलों द्वारा बर्बरतापूर्वक उन्हें ईसाई मत में मतान्तरित कर दिया गया। पिछले एक या दो दशक के दौरान ही वे सभी समूह, जो ईसाई-पूर्व काल की अपनी मजहबी विरासत की यादें संजोए हैं, अपनी मूल पहचान को स्थापित करने के लिए संगठित होने की कोशिश कर रहे हैं।

अमरीका का मामला भी ऐसा ही है। वहां कोलम्बस के पांव रखने के दो सौ वर्ष के भीतर ही लगभग नौ करोड़ मूल निवासियों का लगभग सम्पूर्ण संहार कर दिया गया। आज कुल अमरीकी जनसंख्या में वे केवल एक प्रतिशत ही बचे हैं। लेकिन तब भी उन लगभग 25 लाख मूल अमरीकियों में अपने पूर्वजों की मान्यताओं के प्रति गर्व की गहन जिजीविषा है। अफ्रीका का मामला, हालांकि इस दृष्टि से थोड़ा-सा भिन्न है कि लाखों की संख्या में अफ्रीकियों को पकड़कर अमरीकियों के गुलाम के रूप में भेजा गया था और खून-पसीना बहाने के लिए अंधेरी खदानों में झोंक दिया गया था। भारत में भी ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपने शासन की पहली डेढ़ शताब्दी के दौरान हमारे पांच करोड़ लोगों की या तो हत्या कर दी अथवा भूखा मार दिया। और बाद में हमारे देश का लगभग पूरा-पूरा खून चूसा। और हम यह भी भली-भांति जानते हैं कि किस प्रकार इस्लामी बर्बर आक्रमणकारियों ने हमें कुचला, गुलाम बनाया, मतान्तरित किया, अपहरण किया, हमारा शील भंग किया, लूटा और हमारे महान धर्म और संस्कृति को ध्वस्त किया।

इस प्रकार इन दो पहलुओं को हम किस दृष्टि से देखें? हमारे सभी दशावतारों के महान जीवन का संदेश और विशेषकर भगवान श्रीकृष्ण की यह आ·श्वस्ति है कि जब-जब आसुरी शक्तियां अपना सर उठाएंगी तो वे जन्म लेंगे और उनका विध्वंस करेंगे, भले और पुण्य व्यक्तियों की रक्षा करेंगे और धर्म और सदाचार का शासन स्थापित करेंगे। इसका उत्तर बहुत सीधा-सा है, जो अवतारों की जीवन कथाओं से स्वत: ही उद्घोषित होता है। उदाहरण के लिए श्रीराम और श्रीकृष्ण का जीवन चरित्र ही देखें। हम जानते हैं कि उन्होंने किस प्रकार अपनी विशाल सेनाओं का संगठन किया, परिणामकारी रणनीतियां तैयार कीं, शत्रुओं का नाश करने के लिए आवश्यक हथियार जुटाए और अनवरत तथा भीषण युद्ध किए।

भले और सदाचारी लोगों को शत्रुओं पर विजय पाने के लिए बहुत भारी-वास्तव में बहुत भारी कीमतें चुकानी पड़ती हैं। सैकड़ों को अपना जीवन बलिदान करना पड़ता है, उनके प्रियजनों को अनंत यातनाओं को झेलना पड़ता है। यहां तक कि देवी-देवताओं तक को भी भीषण युद्ध लड़ने पड़े थे। महिषासुरमर्दिनी वे देवी हैं जिन्हें सभी देवों को अपनी शक्तियों का अंश देना पड़ा था, ताकि वे लगभग अजेय लगने वाले महिषासुर पर विजय पा सकें।

भगवद्गीता के अंतिम श्लोक में, सारांश के रूप में उसका संदेश बताते हुए संजय कहते हैं-

यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्र्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।

( "जहां योगेश्वर कृष्ण हो और धनुर्धारी अर्जुन हो, वहां वैभव, विजय और गौरव सुनिश्चित है।')

यह (गीता का) अमर संदेश है। तथ्य यह है कि श्रीकृष्ण, हालांकि धर्म के शत्रुओं का नाश करने में स्वयं ही पूर्णत: समर्थ थे, परन्तु उन्होंने खुद हथियार उठाने से मना कर दिया था। इसके विपरीत, अर्जुन को चुनौती स्वीकार करके युद्ध के लिए तैयार करने हेतु उन्होंने सम्पूर्ण गीता का उपदेश दिया। केवल सदाचारी और पवित्र होने मात्र से ही कोई समाज इतिहास के गर्त में फेंक दिए जाने से नहीं बच सकता। बामियान में शांति और अहिंसा के महानतम् प्रणेता महात्मा बुद्ध की ठोस चट्टानों पर तराशी गई विशालकाय मूर्तियों को तालिबान के बर्बरों से नहीं बचाया जा सका। और यह कृत्य उन्होंने किया जिनके (तालिबानों के) पूर्वज कभी उनके (बुद्ध के) अनुयायी थे। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि उन्हें विजित कर एक ऐसे आराध्य की उग्र अमानवीय प्रकार की उपासना में मतान्तरित कर दिया गया था जो खुद भी उन लोगों के प्रति विद्वेष रखता था, जो उसके आदेशों की अवहेलना करते थे।

जब पूजनीय डा. हेडगेवार ने हिन्दुओं को संगठित कर उनमें पराक्रम का भाव भरना शुरू किया तथा स्वदेश और स्वधर्म की खातिर एक शक्तिशाली, अनुशासित और समर्पित राष्ट्रीय शक्ति का गठन शुरू किया तो कुछ ऐसे "सर्वज्ञ' लोग थे जिन्होंने उन पर छींटाकशी करते हुए कहा, "यह देखो, धर्म की रक्षा के लिए यह खुद भगवान की भूमिका निभाना चाहता है। भगवान ने तो स्वयं ही कहा है कि धर्म की रक्षा के लिए वे खुद ही जन्म लेंगे। धर्म की रक्षा का दावा करने वाले हम बेचारे सामान्य मनुष्य कौन होते हैं? हमें- आस्थावान लोगों को-तो केवल हमारी रक्षा करने के लिए भगवान से पृथ्वी पर अवतार लेने की प्रार्थना करनी चाहिए।'

इस प्रकार की मानसिकता पर टिप्पणी करते हुए डा. हेडगेवार कहा करते थे, "कम से कम मैं तो भगवान से अभी धरती पर जन्म लेने की प्रार्थना नहीं करूंगा! क्योंकि जैसा कि उन्होंने कहा है कि वह सदाचारी और भले लोगों की रक्षा के लिए जन्म लेंगे। लेकिन हम अपने समाज में अधिकांशत: स्वार्थी हैं- अपने परिवारों के प्रति ही चिंतित रहते हैं और समाज के प्रति कर्तव्यों के बारे में सोचते ही नहीं, न अपने धर्म और संस्कृति के प्रति अपना कर्तव्य निभाते हैं। अत: अभी अगर भगवान जन्म लेंगे तो हमें दुष्ट इंसान के रूप में देखेंगे और हमारा नाश करेंगे! आइए, अपने समाज और धर्म के लिए कुछ करने का विचार करें, यानी सबसे पहले हम स्वयं भले और पवित्र इंसान बनें। उसके बाद ही जब भगवान आएंगे तो हमारी रक्षा करेंगे।'

यह सब हम हिन्दूजन को एक ही सर्वोपरि संदेश देता है। दुनिया शक्ति की भाषा समझती है, कुछ और नहीं। चाहे हम अपने देश में, अपने घर में हों अथवा विदेशी राष्ट्रों के संदर्भ में देखें अगर हम अपनी आंखों के सामने दीवार पर अंकित संदेश को नहीं पढ़ सके तो हम विध्वंस को ही आमंत्रित करेंगे।