भारत में जिहाद


इतिहास के पन्नों में दर्ज

बर्बर जिहाद

-- प्रो. किशोरी शरण लाल

(प्रख्यात इतिहासकार एवं भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् के सदस्य)

वे कहते हैं जिहाद शुरू हुआ 11 सितम्बर, 2001 से जब न्यूयार्क में वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ। ठीक है, जिस पर जब चोट लगे, जिहाद वह तब से ही मानेगा। लेकिन हम भारतीय सदियों से जिहाद झेलते आ रहे हैं। याद करें वे दिन जब जिहादी टुकड़ियां काफिरों को मारने के नाम पर मन्दिर और गुरुद्वारे तोड़ती थीं। उन दिनों को कैसे सहा होगा यहां के समाज ने जब अमृतसर के हरमन्दिर साहब सरोवर को अब्दाली की फौजों ने गोरक्त से भर दिया था, जब एक-एक सिख के सर पर इनाम था। उत्तर से लेकर दक्षिण तक जिहाद का पाशविक नंगा नाच 1 अक्तूबर को श्रीनगर विधानसभा पर हमले तक चला आ रहा है। जिन्दा कौमें हमेशा अपने पूर्वजों के बलिदान और उनकी वेदनाओं का स्मरण रखती हैं। जो अपने पुरखों के दर्द को विस्मृत कर दे, वह कपूत कहा जाता है। भारत में तो ऐसा लगता है सेकुलरपंथीय प्रभाव में हमारे दर्द, दर्द ही नहीं माने जा रहे। पाञ्चजन्य इसी मतिभ्रमित सेकुलरवाद के विरुद्ध आवाज बुलन्द करता आया है और जिहाद के वर्तमान दौर में भारत पर हुए जिहादी हमलों को बताने वाली कुछ घटनाओं का विवरण प्रस्तुत कर रहा है:-

जिहाद कोई सामान्य युद्ध नहीं, अपितु अल्लाह की राह में किया जाने वाला युद्ध है। "जिहाद, फी सबीउल्लाह' अर्थात् अल्लाह की राह में लड़ा जाने वाला युद्ध ही जिहाद है। और जो युद्ध अल्लाह के नाम पर लड़ा जाता है, उसे लड़ने वाले में एक अलग तरह का जोश होता है। आज लोग कहते हैं कि जिहाद और आतंकवाद में फर्क है। वे इसकी गलत व्याख्या कर रहे हैं। वस्तुत: आतंकवाद जिहाद का एक हिस्सा है। अबू दाऊद अपनी पुस्तक "सुनान-अबू दाऊद' के दूसरे खंड में लिखते हैं- जिहाद सभी साधनों से लड़ा जाता है। इसके चार स्वरूप हो सकते हैं- दिल से जिहाद, जुबान से जिहाद, हाथ से जिहाद और तलवार से जिहाद। इस्लाम में किसी भी शासक के चार प्रमुख कर्तव्य बताए गए हैं- 1. न्याय, 2. कर लगाना, 3. जुम्मे की नमाज 4. जिहाद। इस जिहाद का एक महत्त्वपूर्ण अंग है गैर मुस्लिमों के दिलों में आतंक पैदा करना। सुप्रसिद्ध चिंतक स्व. रामस्वरूप ने सर विलियम म्योर की पुस्तक "द लाइफ आफ मोहम्मद' की प्रस्तावना में लिखा है, "अपने शत्रुओं के दिलों में आतंक पैदा करना जिहाद एक साधन ही नहीं, बल्कि उसका अंतिम लक्ष्य है। और यह तभी खत्म होता है जब तक कि विरोधी का अपने मत में वि·श्वास खत्म न हो जाए।' जिहाद सबसे पहले अरब में स्थानीय लोगों, यहूदियों और ईसाइयों के विरुद्ध लड़ा गया था। उसके बाद मुसलमान जिन-जिन देशों में गए वहां-वहां अपने मजहब के प्रसार के लिए उन्होंने जिहाद किया और बाद में यह इस्लाम का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गया। भारत भी इसका शिकार बना किन्तु भारत ने जिहाद का डटकर मुकाबला किया। अन्य देशों के लोग मौत के डर से इस्लाम में मतान्तरित हो गए। पहले सऊदी अरब में ईसाई, यहूदी, हिन्दू और अन्य मतों के अनुयायी रहते थे। अरब के बाद मिस्र, सीरिया, इराक, ईरान, अफगानिस्तान आदि सभी जगह लोगों को इस्लाम में मतांतरित किया गया। स्थिति यह आई कि ये इस्लामी देश ही बन गए। अफगानिस्तान तो एक समय हिन्दू और बौद्ध धर्म को मानने वाला समृद्ध देश था। बामियान में बनी भगवान बुद्ध की प्रतिमाएं इसका प्रमाण हैं। भारत के मुगल शासकों द्वारा किए गए जिहाद का वर्णन तत्कालीन मुस्लिम लेखकों ने अपनी किताबों में काफी जोश से किया है। फख्र-ए-मुदाब्बिर की "आदाब-उल-हर्ब' और जियाउद्दीन बर्नी की "फतवा-ए-जहांदारी' से लेकर औरंगजेब की "फतवा-ए-आलमगीरी' में जिहाद की बढ़-चढ़कर चर्चा की गयी है। औरंगजेब अपनी पुस्तक "फतवा-ए-आलमगीरी', में स्पष्ट लिखता है कि मुसलमानों के लिए जिहाद सबसे पवित्र कार्य है। इसलिए राजा और सैन्य प्रमुखों का प्रयास रहता था कि हर युद्ध को जिहाद घोषित किया जाए।

मुस्लिम आक्रांताओं ने भारत में जिहाद करके गैर मुस्लिमों के हृदय में आतंक पैदा कर उन्हें मुसलमान बनाने का कार्य किया। कुछ हद तक वे इस कार्य में सफल भी रहे, किन्तु हिन्दुओं ने लगातार इसका डटकर मुकाबला किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि भारत ईरान, मिस्र, सीरिया आदि देशों की तरह मुस्लिम देश होने से बच गया और हिन्दू स्वाभिमान की जीत हुई।

भारत के अनेक मुस्लिम शासकों के जिहाद का वर्णन तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने बहुत बढ़-चढ़कर किया है। मक्का के गवर्नर अल हज्जाज ने भारत में जिहाद के लिए सबसे पहले मुहम्मद बिन कासिम को सन् 712 में भारत भेजा। उसे सिंध पर आक्रमण का आदेश दिया। हज्जाज को 692 ई में मक्का का गवर्नर बनाया गया था, जहां उसके नेतृत्व में जिहाद के बाद काबा का निर्माण हुआ। काबा के निर्माण के अतिरिक्त उसकी अन्य उपलब्धियों का उल्लेख भी मुस्लिम इतिहासकार करते हैं। इनमें एक है कि उसने अपनी तलवार से 1 लाख लोगों को मौत के घाट उतारा। अपनी तलवार से एक लाख लोगों को मारने का दावा अनेक मुस्लिम खलीफाओं, आक्रान्ताओं और शासकों ने किया है। इसके लिए उन्हें पदवी से भी सम्मानित किया जाता था। खालिद बिन वालिद को "अल्लाह की तलवार', पहले खलीफा अबुल अब्बास को "खून बहाने वाला', और अलाउद्दीन हुसैन को "जहां सोज' यानी दुनिया जलाने वाला कहा जाता था। मुस्लिम इतिहास में इस तरह की पदवियों को बड़े सम्मान से देखा जाता था। भारत में मुहम्मद बिन कासिम को हजारों लोगों को मौत के घाट उतारने का गौरव मिला तो महमूद गजनी को एक लाख लोगों को मारने का। थाने·श्वर में गजनी का आक्रमण इस बर्बरता के प्रमाण प्रस्तुत करता है- "वहां जमीन पर इस कदर हिन्दुओं का खून बह रहा था कि बहते-बहते वह पास की नहर में चला गया और नहर का पानी एकदम लाल हो गया। लोग इस पानी को पी नहीं सके और प्यासे रहने को मजबूर हो गए।' सहारनपुर के पास सिरसा में भी ऐसे ही कत्लेआम का उल्लेख बड़े गर्व के साथ किया गया है। महमूद गजनी एक दिन में सैकड़ों लोगों को अपनी तलवार से मौत के घाट उतारता था। तलवार चलाते-चलाते उसकी अंगुलियां मूठ पर जम सी जाती थीं। अंगुलियों को सीधा करने के लिए, उन्हें आराम देने के लिए वह अपने हाथ गुनगुने पानी में डुबोकर सेंकता था।

भारत में तुर्कों के शासनकाल में मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा कुतुबुद्दीन ऐबक को एक लाख किसानों के नरसंहार का गौरव प्रदान किया गया है। अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद बिन तुगलक जैसे बर्बर शासकों की तो बात ही छोड़ें। उदार हृदय माने जाने वाले फिरोज तुगलक ने बंगाल में एक लाख बंगालियों की हत्या की। तैमूर लंग बड़े गर्व से कहता है कि उसने दिल्ली में कई हजार हिन्दू युद्धबंदियों को मौत के घाट उतारा। उसने कई स्थानों पर अपने विजय स्तम्भों का निर्माण कराया था। इस जिहाद में कोई भी प्रभावशाली मुस्लिम पीछे नहीं रहना चाहता था। शेख दाऊद कम्बु ने अपनी तलवार से 20,000 लोगों की हत्या की थी। इतिहास में उल्लेख मिलता है कि दक्षिण भारत में बीदर और गुलबर्गा के बहमनी सुल्तानों ने हर साल हजारों हिन्दू पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की हत्या की थी। इन नरसंहारों के पीछे असली भावना जिहाद की रहती थी। यानी गैर-मुस्लिमों को मुसलमान न बनने की सजा। सुल्तान इल्तुतमिश को एक उलेमा ने सुझाव दिया था कि वह हिन्दुओं को इस्लाम या मौत का विकल्प दे। 1246 से 1286 के बीच नसीरुद्दीन महमूद और गियासुद्दीन बलबन ने सुनियोजित ढंग से उत्तर-प्रदेश, बुंदेलखंड और बघेलखंड, ग्वालियर, नरवर, चंदेरी और मालवा में सघन मतांतरण अभियान चलाया। कटेहार और मेवात में भी राजपूतों और मेवों का बड़ी संख्या में नरसंहार किया गया। इसी प्रकार 1299 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात में जिहाद किया और चित्तौड़ में भी 30,000 हिन्दुओं के नरसंहार का आदेश दिया। अपनी किताब खजैन-उल-फुतुब (1311 ई.) में अमीर खुसरो ने इस जिहादी बर्बरता का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ये नरसंहार इस तथ्य के द्योतक हैं कि भारत में सुन्नी मुसलमानों के अलावा किसी और इंसान को जीने का अधिकार नहीं है। चार साल बाद अपनी किताब "आशिका' में अमीर खुसरो ने फिर लिखा, "खुशहाल, धार्मिक, कानून-व्यवस्था व सुरक्षा में चुस्त-दुरुस्त हिन्दुस्थान को तलवार के बल पर हमारे जिहादियों (पवित्र सैनिकों) ने एक जंगल की शक्ल में बदल दिया है। यहां इस्लाम विजेता हो गया और हिन्दू पूजा-पाठ लगभग समाप्त हो गए हैं।' जिहाद के चलते हिन्दुओं का उत्पीड़न और नरसंहार जारी रहा। हिन्दुओं के खिलाफ युद्ध साधारण युद्ध नहीं था, उसमें होने वाली मौतें सामान्य मौतें नहीं थीं , नरसंहार बर्बरता की सभी सीमाओं को लांघ जाते थे। इसी जिहाद के कारण भारत में जौहर की प्रथा शुरू हुई, क्योंकि जिहाद में बड़ी संख्या में राजपूत पुरुषों का नरसंहार किया जाता था और मुस्लिम आक्रांताओं की बर्बरता से बचने के लिए अपने सतीत्व की रक्षा के लिए राजपूत स्त्रियां सामूहिक रूप से अग्नि में जिंदा जलकर जौहर करती थीं। कहा जाता है 1305 ई. में जब मालवा पर आक्रमण हुआ उस समय वहां के राजा के पास 40,000 घोड़े और 100,000 पैदल सैनिक थे। प्रत्यक्षदर्शी लिखते हैं कि मालवा युद्ध में इतना खून बहा कि नजर जहां-जहां तक जाती थी वहां खून और मिट्टी से बना दलदल ही दलदल दिखाई देता था। मांडू, उज्जैन, धारनगरी और चंदेरी में भी ऐसे ही दृश्य देखे गए थे। राजस्थान के जालोर और सेवाना में कई साल तक हिन्दुओं ने इस जिहाद का डटकर मुकाबला किया था। बंगाल में बख्तियार, बलबन, गियासुद्दीन तुगलक, मुहम्मद तुगलक और फिरोज तुगलक ने बार-बार हमले किए। मालवा और गुजरात पर भी कई बार हमले हुए। लगभग हर मुस्लिम शासक ने रणथम्भौर पर हमला किया। ग्वालियर, कटेहार और अवध प्रांतों में बार-बार जिहादी हमले हुए। राजपूताना, सिन्ध और पंजाब इस जिहाद के कारण कभी शांति से नहीं रह सके। चौदहवीं शताब्दी के पहले दशक में तुर्की जिहादी दक्षिण भारत में मौत और तबाही लेकर आए। बीदर के मुल्ला दाऊद ने मुहम्मद शाह बहमनी और विजयनगर के राजा के बीच 1366 में हुई लड़ाई का वर्णन करते हुए लिखा है कि इस युद्ध में कम से कम 50,000 हिन्दू मारे गए होंगे!

तुर्कों के बाद भारत में मुगलों का शासन आया जो शासन की नयी रणनीति के साथ आए, लेकिन उनका मजहबी सिद्धान्त यानी जिहाद वही पुराना रहा। बाबर ने 1527 में राणा सांगा के खिलाफ जिहाद किया। और उस जिहाद के बाद खुद को गाजी घोषित कर दिया। गाजी अर्थात् जिहाद में विजेता। इतिहासकार बर्नियर के अनुसार इस विजय के बाद बाबर ने जिहाद में मारे गए हिन्दुओं के कटे हुए सरों से मीनार बनाने का आदेश दिया था। उसके आदेश पर सरों का ढेर लगाकर उन्हें ऊंची सी मीनार में बदल दिया गया था। चंदेरी में मेदिनी राय के खिलाफ जीत के बाद भी बाबर ने ऐसी मीनार बनाने का आदेश दिया था। कटे सरों की ये मीनारें देख वह उल्लास से झूम उठता था।

उदार मुस्लिम शासक माने जाने वाले अकबर के समय भी जिहाद की भावना लुप्त नहीं हुई! अकबर के एक दरबारी अब्दुल कादिर बडौनी ने 1576 में राणा प्रताप के विरुद्ध लड़ने के लिए रवाना हो रही सेना के साथ यह कहकर जाने के लिए जब अकबर से अनुरोध किया कि मुझे भी काफिर हिन्दुओं के खून से अपनी दाढ़ी रंगने का अवसर दें, तो अकबर ने उसकी भावना से खुश हो उसे सोने की मोहरें भेंट की थीं। यह भी उल्लेखनीय है कि अपनी किशोरावस्था में ही अकबर ने हेमू का सर काटकर गाजी की उपाधि प्राप्त की थी। अकबर और जहांगीर के शासन काल में छह लाख हिन्दू मारे गए थे। ये आंकड़े खुद मुस्लिम इतिहासकारों ने पन्नों में बड़े गौरव के साथ दर्ज किए हैं। औरंगजेब के शासनकाल के सभी लेखकों ने लिखा है कि औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं के खिलाफ इस्लाम की सच्ची भावना से जिहाद किया गया। हजारों हिन्दू मन्दिर तोड़े गए और बड़ी संख्या में हिन्दू मुस्लिम बनाए गए और हजारों मौत के घाट उतारे गए। संक्षेप में कहा जा सकता है कि मोहम्मद बिन कासिम से लेकर औरंगजेब तक मध्यकाल में हिन्दुओं को जिहाद का सामना करना पड़ा। दारूल-इस्लाम में दुनिया को बदलने के जिहादियों के इरादे के कारण मौत या इस्लाम में से भारत में भी कुछ हिन्दुओं ने मौत की बजाय इस्लाम का विकल्प स्वीकार किया। लेकिन अधिकांशत: जिहादी प्रवृत्ति के शासकों और सैनिकों को हिन्दुओं से कड़ी टक्कर लेनी पड़ी। गुर्जरों, राजपूतों, मराठों और सिखों ने उन्हें अच्छा सबक सिखाया। -- प्रस्तुति: विनीता गुप्ता