होली के पर्व को शालीनता के साथ मनाते हुए इसके कल्याणकारी संदेश को व्यक्तिगत जीवन में चरितार्थ किया जाए, तभी होली पर्व का मनाया जाना सार्थक कहलाएगा।

 

भारतवर्ष की ख्याति पर्व-त्यौहारों के देश के रूप में है। प्रत्येक पर्व-त्यौहार के पीछे परंपरागत लोकमान्यताएं एवं कल्याणकारी संदेश निहित है।

 

इन पर्व-त्यौहारों की श्रृंखला में होली का विशेष महत्व है।

 

होली का आगमन इस बात का सूचक है कि अब चारों तरफ वसंत ऋतु का सुवास फैलने वाला है।

 

वसंत की आगमन तिथि फाल्गुनी पूर्णिमा पर होली का आगमन होता है, जो मनुष्य के जीवन को आनंद और उल्लास से प्लावित कर देता है।

 

लोकमानस में रचा-बसा होली का पर्व भारत में हिन्दुमतावलंबी जिस उत्साह के साथ मनाते हैं, उनके साथ अन्य समुदाय के लोग भी घुल-मिल जाते हैं।

 

उसे देखकर यही लगता है कि यह पर्व विभिन्न संस्कृतियों को एकीकृत कर आपसी एकता, सद्भाव तथा भाईचारे का परिचय देता है।

 

फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन लोग घरों से लकड़ियां इकट्ठी करते हैं तथा समूहों में खड़े होकर होलिका दहन करते हैं।

 

होलिका दहन के अगले दिन प्रातःकाल से दोपहर तक फाग खेलने की परंपरा है।

 

प्रत्येक आयुवर्ग के लोग रंगों के इस त्यौहार में भागीदारी करते हैं।

 

इस पर्व में लोग भेदभाव को भुलाकर एक दूसरे के मुंह पर अबीर-गुलाल मल देते हैं।

 

पारिवारिक सदस्यों के बीच भी उत्साह के साथ रंगों का यह पर्व मनाया जाता है।

 

जिंदगी जब सारी खुशियों को स्वयं में समेटकर प्रस्तुति का बहाना माँगती है तब प्रकृति मनुष्य को होली जैसा त्योहार देती है।

 

होली हमारे देश का एक विशिष्ट सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक त्यौहार है।

 

अध्यात्म का अर्थ है मनुष्य का ईश्वर से संबंधित होना है या स्वयं का स्वयं के साथ संबंधित होना।

 

इसलिए होली मानव का परमात्मा से एवं स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार का पर्व है।

 

असल में होली बुराइयों के विरुद्ध उठा एक प्रयत्न है, इसी से जिंदगी जीने का नया अंदाज मिलता है, औरों के दुख-दर्द को बाँटा जाता है, बिखरती मानवीय संवेदनाओं को जोड़ा जाता है।

 

आनंद और उल्लास के इस सबसे मुखर त्योहार को हमने कहाँ-से-कहाँ लाकर खड़ा कर दिया है।

 

कभी होली के चंग की हुंकार से जहाँ मन के रंजिश की गाँठें खुलती थीं, दूरियाँ सिमटती थीं वहाँ आज होली के हुड़दंग, अश्लील हरकतों और गंदे तथा हानिकारक पदार्थों के प्रयोग से भयाक्रांत डरे सहमे लोगों के मन में होली का वास्तविक अर्थ गुम हो रहा है।

 

होली के मोहक रंगों की फुहार से जहाँ प्यार, स्नेह और अपनत्व बिखरता था आज वहीं खतरनाक केमिकल, गुलाल और नकली रंगों से अनेक बीमारियाँ बढ़ रही हैं और मन की दूरियाँ भी।

 

यद्यपि आज के समय की तथाकथित भौतिकवादी सोच एवं पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव, स्वार्थ एवं संकीर्णता भरे वातावरण से होली की परम्परा में बदलाव आया है।

 

परिस्थितियों के थपेड़ों ने होली की खुशी और मस्ती को प्रभावित भी किया है, लेकिन आज भी बृजभूमि ने होली की प्राचीन परम्पराओं को संजोये रखा है।

 

यह परम्परा इतनी जीवन्त है कि इसके आकर्षण में देश-विदेश के लाखों पर्यटक ब्रज-वृन्दावन की दिव्य होली के दर्शन करने और उसके रंगों में भीगने का आनन्द लेने प्रतिवर्ष यहाँ आते हैं।

 

बसन्तोत्सव के आगमन के साथ ही वृन्दावन के वातावरण में एक अद्भुत मस्ती का समावेश होने लगता है, बसन्त का भी उत्सव यहाँ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।

 

इस उत्सव की आनन्द लहरी धीमी भी नहीं हो पाती कि प्रारम्भ हो जाता है, फाल्गुन का मस्त महीना ।

 

फाल्गुन मास और होली की परम्पराएँ श्रीकृष्ण की लीलाओं से सम्बद्ध हैं और भक्त हृदय में विशेष महत्व रखती हैं।

 

श्रीकृष्ण की भक्ति में सराबोर होकर होली का रंगभरा और रंगीनी भरा त्यौहार मनाना एक विलक्षण अनुभव है।

 

मंदिरों की नगरी वृन्दावन में फाल्गुन शुक्ल एकादशी का विशेष महत्व है, इस दिन यहाँ होली के रंग खेलना परम्परागत रूप में प्रारम्भ हो जाता है।

 

मंदिरों में होली की मस्ती और भक्ति दोनों ही अपनी अनुपम छटा बिखेरती है।

 

इस दिव्य मास और होली के रंग में अपने आपको रंगने के लिये भक्तगण होली पर सुदूर प्रान्तों एवं स्थानों से वृन्दावन आकर आनन्दित होते हैं।

 

उनकी वृन्दावन तक की यात्रा कृष्णमय बनकर चलती हैं और उसमें भी होली की मस्ती छायी रहती है।

 

रास्ते भर बसों में गाना-बजाना, होली के रसिया और गीत, भक्ति प्रधान नृत्य, कभी-कभी तो विचित्र रोमांच होने लगता है।

 

वृन्दावन की पावन भूमि में पदार्पण होते ही भक्तों की टोलियों का विशेष हृदयग्राही नृत्य बड़ा आकर्षक होता है।

 

लगता है, बिहारीजी के दर्शनों की लालसा में ये इतने भाव-विह्वल हैं कि जमीन पर पैर ही नहीं रखना चाहते।

 

कोई किसी तरह की चिन्ता नहीं, कोई द्वेष और मनोमालिन्य नहीं, केवल सुखद वातावरण का ही बोलबाला होता है।

 

होली को सम्पूर्णता से आयोजित करने के लिये मन ही नहीं, माहौलभी चाहिए और यही वृंदावन आकर देखने को मिलता है।

 

दरअसल मनुष्य का जीवन अनेक कष्टों और विपदाओं से भरा हुआ है।

 

वह दिन-रात अपने जीवन की पीड़ा का समाधान ढूंढने में जुटा रहता है।

 

इसी आशा और निराशा के क्षणों में उसका मन व्याकुल बना रहता है।

 

ऐसे ही क्षणों में होली जैसे पर्व उसके जीवन में आशा का संचार करते हैं।

 

होली रंग, अबीर और गुलाल का पर्व है, परंतु समय बदलने के साथ ही होली के मूल उद्देश्य और परंपरा को विस्मृत कर शालीनता का उल्लंघन करने की मनोवृत्ति बढ़ती जा रही है।

 

प्रेम और सद्भाव के इस पर्व को कुछ लोग कीचड़, जहरीले एवं खतरनाक रासायनिक रंगो आदि के माध्यम से मनाते हुए नहीं हिचकते।

 

यही कारण है कि आज के समाज में कई ऐसे लोग हैं जो होली के दिन स्वयं को एक कमरे में बंद कर लेना उचित समझते हैं।

 

सही अर्थों में होली का मतलब शालीनता का उल्लंघन करना नहीं है, परंतु पश्चिमी संस्कृति की दासता को आदर्श मानने वाली नई पीढ़ी प्रचलित परंपराओं को विकृत करने में नहीं हिचकती।

 

होली के अवसर पर छेड़खानी, मारपीट, मादक पदार्थों का सेवन, उच्छृंखलता आदि के जरिए शालीनता की हदों को पार कर दिया जाता है।

 

आवश्यकता है कि होली के वास्तविक उद्देश्य को आत्मसात किया जाए और उसी के आधार पर इसे मनाया जाए।

होली का पर्व भेदभाव को भूलने का संदेश देता है, साथ ही यह मानवीय संबंधों में समरसता का विकास करता है।

 

होली के पर्व को शालीनता के साथ मनाते हुए इसके कल्याणकारी संदेश को व्यक्तिगत जीवन में चरितार्थ किया जाए, तभी होली पर्व का मनाया जाना सार्थक कहलाएगा।