*श्रद्धेय पंडित श्री नंदकिशोर पाण्डेय जी भागवताचार्य*
*(गुरु - ज्ञान )*
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मित्र हो तो निषाद राज गुह के जैसा :-
निषाद राज गुहक श्रीराम जी के श्रृंगवेरपुर आगमन सुनकर अत्यंत आनंदित होता है तथा जो उचित लगा
वह उपहार लेकर अपने मित्र के सन्मुख आ गया। वह श्रीराम वनवास सुनकर अपना राज्य देकर उनकी सेवा करना चाहता है...
देव धरनि धनु धाम तुम्हारा।
मैं जनु नीचु सहित परिवारा।।
वह अपने बाल सखा को यथासंभव सेवा करता है और जब भरत जी सेना सहित आने लगे तो ये जानते हुए कि अयोध्या की चतुरंगीनि सेना के सन्मुख हम तुच्छ हैं वे मित्र धर्म पालन हेतु जान की बाजी लगाना चाहते हैं।
वे अपने सहयोगियों से कहते हैं...
अस बिचारि गुह ग्याति सन कहेउ-"सजग सब होहु।"
हँथवासहु ! बोरहु तरनि !! कीजिअ घाटारोहु!!!
मेरे साथियों! आप सब सचेत हो जाओ।
हथवाँसहु - नाव खेने वाले पतवार को हथियार रूप में हाथ में ले लो !!
बोरहु तरनि - नाव को पानी में डूबा दो ताकि वे पार न हो सकें!!!
कीजिअ घाटारोहु - पतवार को ही हथियार बना कर सेना सहित भरत को गंगा घाट पर रोक दो।
होहु सँजोइल! - हे मित्रों! बिना विलंब के जो भी अस्त्र शस्त्र है उसे लेकर इकट्ठा हो जाओ !
रोकहु घाटा - ऐ मेरे बहादुर साथियों! जल्दी से सब गंगा जी के घाट को रोक दो ।
सन्मुख लोह भरत सन लेऊँ- आज हमें भरत के सन्मुख होकर पूरे जोश से भयंकर युद्ध करना है।
जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ - हम जब तक जीवित रहेंगे भरत को गंगा पार नहीं होने देंगे।
हे मित्रों! मुझे मालूम है कि चतुरंगीनि सेना सहित भरत बलवान है तो हम श्रीराम जी के लिए अपना बलिदान दे सकते हैं।
समर मरनु ! पुनि सुरसरि तीरा- यदि हम मरेंगे तो युद्ध में अतः वीरगति की प्राप्ति होगी और उसमें भी पवित्र गंगा जी के घाट पर...
राम काजु ! - हमारी मृत्यु श्रीराम जी के कार्य में होगा तथा...छनभंगु सरीरा- हे मित्रों! हमारे नाशवान शरीर का सौभाग्य है जो श्रीराम जी के काम आएगा।
....दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ "बजाउ - जुझाऊ ढोलू"।।
गुहक ने मित्र के रक्षा हेतु रणभेरी बजवा दिए और भले ही उनके साथ छोटी टुकड़ी है लेकिन मित्र धर्म पालन हेतु दिल बहुत बड़ा है।
निषाद राज गुहक ने अपने मित्र श्रीराम जी से कभी कुछ माँगे नहीं बल्कि मित्र के लिए अपने प्रिय प्राण न्योछावर हेतु तत्पर रहे ।
श्रीराम जी सुग्रीव से अग्नि साक्षी देकर मानो गुहक के मित्रता को परिभाषित किए हैं...
जे मित्र दुख होहिं दुखारी।तिन्हहिं बिलोकत पातक भारी।।
निज दुख गिरि सम, रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना।।
जिन्ह कें असि मति सहज न आई।ते सठ ! कत हठि करत मिताई।।
कुपथ निवारि ,सुपंथ चलावा। गुन प्रकटै,अवगुनन्हि दुरावा।।
देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।।
बिपति काल कर सतगुन नेहा।श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।।
आगें कह मृदु बचन बनाई ।पाछें अनहित! मन कुटिलाई।।
जाकर चित्त अहि गति सम भाई। अस "कुमित्र" परिहरेहिं भलाई।।
सेवक सठ ! नृप कृपन !! कुनारी!!!। कपटी मित्र! सूल सम चारी।।
मित्र तो वह होता है जो मित्र के भलाई हेतु हर तरह से तत्पर रहता है...
"सखा"! - सोच त्यागहुँ !! बल मोरें!!!
क्योंकि हे मित्र! मैं आपके लिए वो सभी कार्य करूँगा जिससे आपकी भलाई हो...
सब बिधि घटब काज मैं तोरे।
🙏
सीताराम जय सीताराम
सीताराम जय सीताराम जी